Saturday, January 29, 2022

भारत का सामान्य परिचय

                भारत का सामान्य परिचय
भारत एशिया महाद्वीप के अंतर्गत आता है! इसमें 28 राज्यों 8 केंद्र शासित प्रदेश हैl
Note- 31 अक्टूबर 2019 को जम्मू और लद्दाख एवं 26 जनवरी 2020 को  दमन और दीव व दादर एव नागर हवेली केंद्र शासित प्रदेशों के रूप में अस्तित्व में आए! 
भारत उत्तरी गोलार्ध में विश्वत रेखा के उत्तर में स्थित है इसकी मुख्य भूमि 8°4' उत्तरी अक्षांश से 37°6' उत्तरी अक्षांश के मध्य तथा 68°7 पूर्वी देशांतर से 97°25' पूर्वी देशांतर के मध्य विस्तृत है! 
इसका विस्तार उत्तर से दक्षिण 3214 किलोमीटर तथा पूर्व से पश्चिम 2933 किलोमीटर तक है! 
भारत की स्थल सीमा की लंबाई 15106.7 किलोमीटर तथा इसकी तटीय भाग की लंबाई 7516.6 किलोमीटर और  मुख्य भूमि की तटीय रेखा की लंबाई 6100 किलोमीटर है! 
भारत का क्षेत्रफल 3287263 वर्ग किलोमीटर है क्षेत्रफल की दृष्टि में भारत का सातवां नंबर है! 
 Note-क्षेत्रफल की दृष्टि में सबसे बड़ा देश रूस कनाडा अमेरिका चीन है! 
भारत में विश्व की 2.42% भूमि है परंतु यहां 17.5% जनसंख्या निवास करती है! 
Note- भारत विश्व के क्षेत्रफल का 0.57% है परंतु कुल जमीनी क्षेत्रफल का 2.42% है! 
2011 की जनगणना के अनुसार भारत जनसंख्या की दृष्टि में दूसरे नंबर का देश है प्रथम स्थान चीन का है! 
Note- भारत विश्व का दसवां औद्योगिक देश है तथा छटा ऐसा देश है जो अंतरिक्ष में गया है! 
भारत के संपूर्ण क्षेत्रफल में 10.7% भाग पर्वत 18.6% भाग पहाड़ वह 27.7% भाग पठारी एवं 43% भाग मैदान है! 

भारत  7 देशों से स्थलीय सीमा बनाता है इसके के उत्तर में नेपाल भूटान (सबसे छोटा पड़ोसी देश) और चीन दक्षिण में श्रीलंका मालदीव एवं हिंद महासागर, पूर्व में बांग्लादेश म्यांमार बंगाल की खाड़ी तथा पश्चिम में पाकिस्तान अरब सागर है! 
Note- भारत की सबसे लंबी स्थलीय सीमा बांग्लादेश (4096 किलोमीटर) , चीन (3488 किलोमीटर) पाकिस्तान (3323 किलोमीटर) तथा सबसे कम सीमा अफगानिस्तान से (106 किलोमीटर) साझा करता है! 
भारत की जलीय सीमा 7 देशों से लगी है पाकिस्तान मालदीप श्रीलंका बांग्लादेश म्यांमार  थाईलैंड इंडोनेशिया! 
Note- भारत की सबसे लंबी जलीय सीमा वाला राज्य गुजरात और सबसे छोटी जलीय सीमा वाला राज्य गोवा है! 
बांग्लादेश म्यांमार पाकिस्तान भारत की जलीय तथा स्थलीय दोनों सीमा से लगे देश हैं! 
भारत के 3 राज्यों की सीमाएं सर्वाधिक देशों से मिलती है- पश्चिम बंगाल (बांग्लादेश नेपाल भूटान) सिक्किम (नेपाल चीन भूटान) व  अरुणाचल प्रदेश (भूटान चीन म्यांमार) 
भारत को श्रीलंका से अलग करने वाला समुद्री क्षेत्र मन्नार की खाड़ी तथा पाक जलडमरूजलडमरू है! 

भारत के सीमावर्ती देश- 
बांग्लादेश (4996.7km)- पश्चिम बंगाल( बांग्लादेश से सबसे लंबी सीमा वाला राज्य)असम मेघालय त्रिपुरा मिजोरम
चीन (3448 km)- लद्दाख( चीन से लगी सबसे लंबी सीमा वाला राज्य) हिमाचल प्रदेश उत्तराखंड सिक्किम अरुणाचल प्रदेश
पाकिस्तान (3323km)- गुजरात राजस्थान (पाकिस्तान से सबसे लंबी सीमा वाला राज्य) पंजाब जम्मू कश्मीर और लद्दाख
नेपाल (1751km)- उत्तर प्रदेश बिहार उत्तराखंड पश्चिम बंगाल सिक्किम
म्यांमार (1643km)- असम (भूटान से सबसे लंबी सीमा वाला राज्य) सिक्किम पश्चिम बंगाल अरुणाचल प्रदेश
अफगानिस्तान भारत से 106 किलोमीटर सीमा बनाता है जो लद्दाख से लगती है यह पाक अधिकृत इलाका है! 

भारत के चारों और अंतिम सीमा बिंदु-
दक्षिणी बिंदु- इंदिरा प्वाइंट (ग्रेट निकोबार दीप) 
उत्तरी बिंदु- इंदिरा कॉल (लद्दाख) 
पश्चिमी बिंदु- गुहार मोती (गुजरात) 
पूर्व बिंदु- किबिधु (अरुणाचल प्रदेश) 
Note-मुख्य भूमि का दक्षिणतम बिंदु कन्याकुमारी तमिलनाडु इसे कैप कामोरिन भी कहा जाता है! 
कर्क रेखा भारत के 8 राज्यों से गुजरती है- गुजरात राजस्थान मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ झारखंड पश्चिम बंगाल त्रिपुरा मिजोरम
भारत का मानक समय(IST) इलाहाबाद प्रयागराज के निकट नैनी से गुजरने वाली 82.5 पूर्वी देशांतर रेखा को माना जाता है! जो ग्रीनविच समय(GMT) से 5 घंटे 30 मिनट आगे हैं! यह पांच राज्यों से गुजरती है! 
नोट-भारतीय उपमहाद्वीप में सम्मिलित देश भारत पाकिस्तान बांग्लादेश नेपाल भूटान है! 
तेलंगाना का गठन 2 जून 2014 को हुआ! 
भारत का क्षेत्रफल की दृष्टि में सबसे बड़ा राज्य राजस्थान और सबसे छोटा राज्य गोवा है! 
क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा जिला कच्छ उसके बाद लेह तथा जैसलमेर है! 
जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश और सबसे छोटा सिक्किम है! 
क्षेत्रफल की दृष्टि में अंडमान निकोबार दीप समूह सबसे बड़ा तथा लक्ष्यदीप सबसे छोटा संघ शासित प्रदेश है! 
केंद्र शासित प्रदेश पांडुचेरी का पहला भारत के 3 राज्यों में है तमिलनाडु में कराईकल , आंध्र प्रदेश में यमन व केरल में माहे! 
जनसंख्या की दृष्टि में सबसे बड़ा संघ शासित प्रदेश दिल्ली व सबसे कम जनसंख्या वाला संघ शासित प्रदेश लक्षद्वीप है! 
भारत की प्रदेशिक समुद्री सीमा तटरेखा से 12 समुद्री मील की दूरी तक है यहां भारत को संपूर्ण अधिकार प्राप्त है तटरेखा से 24 समुद्री मील की दूरी तक को संलग्न क्षेत्र  कहते हैं इस चित्र में भारत को राजकोषीय अधिकार सीमा शुल्क से संबंधित अधिकार प्रदूषण नियंत्रण तथा अप्रवासी कानून लागू करने का अधिकार है! अनन्य आर्थिक क्षेत्र तटरेखा से 200 समुद्री मील की दूरी तक है! 
सर क्रीक भारत पाकिस्तान सीमा का विवाद हिस्सा है जो गुजरात के कच्छ के रन में स्थित है! 
नोट- भारत के स्थलाकृति मानचित्र का निर्माण भारतीय सर्वेक्षण विभाग करता है इसकी स्थापना 1767 में हुई थी! 
महत्वपूर्ण- भारत और अफगानिस्तान के बीच डूरंड रेखा है जो 1893 में निर्धारित की गई थी भारत और चीन के बीच मैकमोहन रेखा है जो 1914 ईस्वी में शिमला अभीसमय के तहत निर्धारित की गई थी भारत और पाकिस्तान के बीच रेडक्लिफ रेखा है जिसका निर्धारण 1947 में निर्धारित किया गया बांग्लादेश के आजाद होने के बाद भारत और बांग्लादेश के बीच सीमा रेखा को भी रेडक्लिप के नाम से जाना जाता है! 


Friday, January 28, 2022

उत्तराखंड में चंद्र वंश का उदय

                   उत्तराखंड में चंद्र वंश
एटकिंसन और बद्री दत्त पांडे इस वंश का संस्थापक सोमचंद्र को मानते हैं परंतु फ्रेजर साहब यशवंत सिंह कटोच इस वंश का संस्थापक थोहरचंद्र को मानते हैं! 
सोम चंद- यह मुलरूप से इलाहाबाद के निकट झुसी या प्रतिस्थानपुर नामक स्थान से लगभग 685 ईसवी या 700 ईसवी में कुमाऊ आया! इसका विवाह कत्यूरी शासक ब्रह्मा देव की पुत्री चंपा से हुआ दहेज में इसे चंपावत क्षेत्र में 300 नाली जमीन मिली जहां इसने चंद्र वंश की नींव रखी! 
दहेज की जमीन में इसने अंडाकार राजबुंगा का किला बनाया था! 
सोमचंद एक मांडलिक राजा था जो जयदेवमल डोडी को कर देता था! 
इसने किले की सुरक्षा के लिए चाराल या चारखाम व्यवस्था लागू की और कार्की चौधरी बोरा तड़ागी को  राजकार्य हेतु  नियुक्त किया! 
मेहरा व फर्त्याल लोगों से अच्छे संबंध स्थापित करने के लिए इन्हें उच्च पद दिए और इनकी मदद से कुमाऊं में पंचायती राज व्यवस्था की नींव रखी है! 
चोथानी ब्राह्मणों की नियुक्ति की जिसमें जोशी बिष्ट पांडे सिमल्टीया आते थे! 
इसका पहला अभियान खस राजा  के विरुद्ध था जिसमें इसका सेनापति कालू तड़ागी था इस मे इसकी  प्रथम विजय हुई! 
कुमाऊनी ऐपण कला का उदय सोमचंद ने ही कराया था! 
केपी नौटियाल के अनुसार संसद ने जागेश्वर में कई मंदिरों का निर्माण कराया था! 
सोमचंद ने पुलिस व्यवस्था व टैक्स व्यवस्था को सुचारू बनाने के लिए बुंढो और सयानो की नियुक्ति की! 
721 ईसवी में इसका निधन हो गया! 
इसके बाद आत्मचंद्र पूर्णचंद्र राजा बने जो अयोग्य राजा सिद्धू हुए! 
राजा इंद्रचंद- इसका शासनकाल 758 ईस्वी से 778 ईसवी का था!  यह तिब्बत से नेपाल की मदद से रेशम कीटो को लाया और यहां रेशम कारखाने खोलें! इसके समय पटरंगवाली झूठी खबरें सुर्खियों में थी! 
Note- पटरंगवाली खबर के विषय में ऐसी चर्चा थी इन खबरों से रेशम रगंते समय रंग पक्का होता था! 
राजा वीणाचंद- इसका शासनकाल 856 से 869 ईसवी तक का था यह एक विलासी राजा था संतान ना होने के कारण इस पर खसो ने आक्रमण किया और 200 साल तक शासन किया! 
वीरचंद- यह संसार चंद्र का वंशज था जो नेपाल में रहता था सौनखडायत की मदत सौपाल नामक खस राजा को हराकर उत्तराखंड में पुनः चंद्र वंश की नींव रखी! 
राजा नानकोंचंद- इसका शासनकाल 1177 से 1195 तक का था  गोपेश्वर के त्रिशूल लेख से पता चलता है कि इस के समय में 1191 में अशोक चल्ल का यहां आधिपत्य था! 
सहणपाल व  पुरुषोत्तम बोधगया शिलालेखों में इसे खस देश का राजा अधिराज कहा गया! 
बलकेश्वर मंदिर चंपावत का लेख 1223 में अशोक चल्ल व क्राचल्लदेव नामक राजाओं के नाम उल्लेखित है! 

थोहरचंद- कुछ इतिहासकार इसे चंद्र वंश का संस्थापक मानते हैं परंतु वह 23 वें नंबर का राजा था! राजा अभयचंद के गढ़ सारा कुट ताम्रपत्र में  उसे थोरहत अभयचंद कहा गया है! यह ताम्रपत्र लोहाघाट में है! 

त्रिलोकचंद- इसका शासनकाल 1296 से 1303 ईसवी तक था इसने छकाता अर्थात नैनीताल पर आक्रमण किया और भीमताल में एक किला बनाया इसने पाली,बारामंडल क्षेत्र को भी विजित किया था  इसके बाद डमरु चंद्र धर्म चंद्र अभय चंद्र गद्दी में बैठे जिनका अधिक विवरण प्राप्त नहीं है! 
अभयचंद- चंद्र वंश का प्रथम शासक जिसका वर्णन अभिलेखों में मिलता है इसके चार अभिलेख प्राप्त हुए हैं मानेसर मंदिर भीतरी शिलालेख, वालकेश्वर मंदिर लघु स्तंभ लेख, गढ़ सारी ताम्रपत्र, चौकुनी बोरा शिलालेख है! इसका शासनकाल 1344 से 1374 तक था! 
गरुण ज्ञानचंद- दिसंबर 1378 में अभय चंद की मृत्यु के बाद ज्ञान चंद्र प्रथम जिसे गुरु ज्ञानचंद के नाम से भी जानते हैं वह गद्दी में बैठा!  इस के दरबार में नीलू कठायत व  जस्सा कमलेखी थे!  ज्ञान चंद ने नीलू कठायत को रौत भुमि दी थी! परंतु जस्ता कमलेखी के  बहकावे में ज्ञान चंद्र नीलू कठायत को मरवा देता है! नीलू कठायत को कुमय्या खिल्लत भी कहा जाता है! ज्ञान चंद्र को गरुण की उपाधि फिरोजशाह तुगलक ने दी थी!  1591 के ताम्रपत्र से पता चलता है कि यह प्रथम चंद शासक था जिसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी! 
उधान चंद या ध्यानचंद- इसका शासनकाल 1420 से 1422 तक था इतने चंपावत के बालेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था जिसे बाद में विक्रम चंद्र ने कराया इस मंदिर का अंतिम जीर्णोद्धार 1796 में गोरखा  सूबेदार महावीर थापा ने कराया! 
विक्रम चंद- इसने गुजराती ब्राह्मणों को भी भूमि दान की तथा बालेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया! इसके समय माल क्षेत्र में सुल्तान मुबारक शाह की सेना द्वारा आक्रमण किया गया था! इसके समय जनता ने विद्रोह किया था! 
भारती चंद- विक्रम चंद्र के बाद कली कल्याण चंद गद्दी में बैठता है जिसका काफी विद्रोह होता है इसी विद्रोह का फायदा उठाकर भारती चंद्र गद्दी प्राप्त करता है! इतने डोडी की अधीनता स्वीकार नहीं की और इन से 12 वर्ष तक युद्ध किया और नायक जाति का उद्भव हुआ इस समय डोडी का राजा नाग माल था! डोडी अभियान में भारती चंद  के पुत्र रतन चंद्र का बहुत बड़ा हाथ इसी के कारण इस अभियान को सफल बनाया गया! भारती चंद  ने अपनी सेना में सभी को भर्ती किया इसने अपना पड़ाव देव सिंह मैदान में लगाया था जिसके साथ कटकु नौला में हैं! 
रतनचंद- जैंदा किराल की मदद से इसने उत्तराखंड में सोर क्षेत्र में  भूमि बंदोबस्त कराया जो उत्तराखंड का प्रथम बंदोबस्त था! 
कीर्ति चंद- यह नाथ संप्रदाय का अनुयाई था और पहला शासक था जिसने गढ़वाल पर आक्रमण किया इस समय गढ़वाल का राजा अजय पाल था गढ़वाल और कुमाऊं की सीमा को देवघाट निर्धारित किया! 
इसके बाद प्रताप चंद्र तारा चंद मानिकचंद कल्याण चंद्र तथा पूर्ण चंद्र राजा बने! 
मानिकचंद ने इस्लाम खां के विरोधी खवास खां को शरण दी थी! 
भीष्मचंद- यह चंद वंश का 43वे नंबर का  का राजा था! इसका शासनकाल 1511 से 1533 ईस्वी तक रहा यह अंतिम शासक था जिसने चंपावत से शासन किया था!  इसने अल्मोड़ा की स्थापना की और इसका नाम आलमनगर रखा यहां खगमराकोट का किला बनाया परंतु वह यहां से शासन नहीं कर पाया उसने अपनी राजधानी चंपावत से अल्मोड़ा बनाए जिसका लाभ उठाकर रामगढ़ के गणपति गुजवा ने इसे मार कर बारामंडल पर अधिकार कर लिया! इस समय इसका गोद लिया हुआ पुत्र बालोकल्याण चंद  डोडी अभियान में था वह वहां संधि कर यहां आता है और गुजवा मारता है! 
बालोकल्याण चंद- यह अल्मोड़ा में शासन करने वाला पहला शासक था! इतने गंगोलीहाट पर भी अपना अधिकार प्राप्त किया!
इसका विवाह डोडी  के राजा हरि मल की बहन से हुआ और दहेज में सोर क्षेत्र मिला! परंतु इसे सिरा क्षेत्र चाहिए था! 
सिरा को प्राप्त करने के लिए  इसने उस पर आक्रमण किया परंतु यह सफल रहा इसने दानपुर क्षेत्र को भी जीता था!  इसके बाद इसका पुत्र रुद्रचंद  गद्दी में बैठता है
Note- इतने अल्मोड़ा में लाल मंडी का किला तथा मल्ला महल का निर्माण कराया था परंतु कुछ इतिहासकार मल्ला महल का निर्माणकर्ता रुद्रचंद को मानते है! 

राजा रुद्रचंद- यह अकबर के समकालीन था इसने नागौर की लड़ाई में अकबर का साथ दिया था इसकी बहादुरी देखकर अकबर ने इसे 84माल दे दिया था! 
इसका बीरबल से भी अच्छा संबंध था इसने बीरबल को अपना पुरोहित बनाया था! 
इसने पुरुष पंत  के सहयोग से डोडी के रैका राजा हरिमल्ल को हराया था परंतु बधाणगढी के  युद्ध में गढ़वाल नरेश बलभद्र साह के साथ युद्ध करते समय पुरुष पंत मारा जाता है! 
इतने रुद्रपुर  की स्थापना व मल्ला महल का निर्माण कराया था  एवं 1593 में रामशिला मंदिर का निर्माण करें तथा संस्कृति के प्रचार-पसार किया एवं अल्मोड़ा में संस्कृत शिक्षा की व्यवस्था की युवाओं को संस्कृत सीखने के लिए काशी तथा कश्मीर भेजा! 
इसने त्रैवर्णिक धर्मनिर्णय, श्येनिकशास्त्र, ययाति चरित्रम्, यथा ऊषिरागोदय चार ग्रंथ लिखे! 
इतने चौथानी ब्राह्मणों के नीचे भी ब्राह्मण वर्ग बनाएं- पंचबिडिये(तिथानी) ब्राह्मण, हलिया ब्राह्मण(पितलिये) ओली ब्राह्मण! 
लक्ष्मीचंद- राजा रुद्रचंद  के बाद उसका बेटा लक्ष्मीचंद गद्दी में बैठता है जिसे मानोदय काव्य  लक्ष्मण चंद कहा है! 
इसके मुगलों से अच्छे संबंध थे जिस कारण  जहांगीर की आत्मकथा में से पहाड़ी राजाओं में सबसे अमीर राजा बताया गया! 
गढ़वाल नरेश मानशाह के साथ सात युद्ध हारने के बाद आठवे युद्ध में अपने सेनापति गैंडा सिह साथ उतरता है! इस युद्ध को यह जीत जाते है और मानशाह के सेनापति खतडसिह को मार देते है! कुछ लोगों का मत है तब से कुमाऊं में खतड़वा त्यौहार मनाया जाता है
लक्ष्मीचंद के गढ को  गीदड़ गढ़ तथा इसे लखुली बिरालो कहते थे! 
इसने न्योवली और बिष्टावाली नामक कचहरिया बनाई थी! 1602 में इसने बागनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था
इसने कई बाग बगीचों का निर्माण कराया था तथा ज्यूलिया व सिरती नामक कर भी लगाए थे! लोक मान्यता के अनुसार इसके समय करो का भार इतना था कि लोग सब्जियां अपनी छत पर उगाते थे! 
इसने प्रशासन को तीन भागों में बांटा था-
सरदार- परगने का अधिकारी.
फौजदार- सेना का अधिकारी
नेगी(दस्तुर) - राज्य के छोटे कर्मचारी
लक्ष्मीचंद के भाई का नाम शक्ति गोसाई था जो जन्म से अंधा था इसे कुमाऊ का धृतराष्ट्र कहा जाता है यह प्रशासनिक व्यवस्था देखता था! 

लक्ष्मी चंद के बेटे दीपचंद त्रिमलचंद नारायण चंद नीलू गोसाईं थे! 
राजा दिलीप चंद- इसका शासनकाल 1621 से 1624 तक था यह लक्ष्मीचंद का पुत्र था टीवी के कारण उसकी मृत्यु हो जाती है! 
राजा विजय चंद- यह दिलीप चंद का बेटा था इस के शासन में शंकर कार्की पीरु गोसाई विनायक भट्ट का हस्तक्षेप  था! 
विजय चंद के चाचा ने इन तीनों का विरोध किया जिस कारण इन्होंने इसकी आंखें निकाल दी जिससे इसके कुछ समय बाद इसकी मृत्यु हो जाती है इसके बेटे को पुरोहित श्री धर्माकर तिवारी जी पालते हैं!  जो बाद में बाज बहादुर चंद्र के नाम से राजा बनता है! 
नीलू गोसाई की मृत्यु के बाद यह तीनों राजा विजयचंद को भी मार देते हैं! भय  के कारण  लक्ष्मी चंद के बेटे त्रिमल चंद गढ़वाल नरेश श्याम शाह की शरण लेता है और श्याम शाह एवं मेहरा दल की मदद से कुमाऊ की गद्दी प्राप्त करता है! 
त्रिमलचंद शंकर कार्की को मार देता है और विनायक भट्ट की आंखें निकाल देता है पीरु गोसाई भय के कारण आत्महत्या कर लेता है! 
 यह नीलू कठआयत के खानदान के एक व्यक्ति कर्ण कठआयत को रसोईया दरोगा बनाता है! 
त्रिमलचंद की 1630 में जागेश्वर में मूर्ति स्थापित की थी! 
इसके समय छखाता में विद्रोह हुआ था इतने महिपतिशाह के साथ भी युद्ध किया था! 

बाजबहादुर चंद- यह नीलू गुसाई का पुत्र था इसे धर्माकर तिवारी जी ने पाला! इसका मूल नाम बाजा था राजा बनने से पूर्व यहां ग्वाले का जीवन जीता था!  
जब शाहजहां ने गढ़वाल पर आक्रमण किया इसने उसकी मदद की थी जिस कारण इसे उसने बहादुर की उपाधि दी! 
इसके के निर्माण कार्य-
कटारमल सूर्य मंदिर का जीर्णोद्धार 
भीमेश्वर मंदिर का निर्माण( भीमताल) 
एक हथिया देवास( पिथौरागढ़) 
पिननाथ मंदिर (बागेश्वर) का निर्माण 
घोड़ाखाल का गोलज्यु मंदिर
नंदा देवी की मूर्ति देवलगढ़ से अल्मोड़ा लाया था
इसके समकालीन गढ़वाली राजा-पृथ्वीपति शाह फतेहपतिशाह
इसके अन्य कार्य-
बाजपुर नगर की स्थापना! 
1639 इसके एक अधिकारी काशीनाथ ने काशीपुर के स्थापना! 
किसने प्रति परिवार से ₹1 कर लगाया था जो जजिया कर या पौल कर के समान था! 
बेकार पर रोक लगाने वाला पहला शासक था! 
कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए गूंठ भूमि दान(1673) की थी! 
इतने मांगा नामक कर भी लगाया था! 
यह पहला शासक था जिसका चित्र प्राप्त हुआ! 
इसने भोटिया व शौका व्यापारियों ने सिरती नामक कर लगाया था! 
इसके समकालीन तीलू रौतेली थी इसे गढ़वाल की झांसी की रानी व  गढ़वाल की जॉन आफ आर्क भी कहते हैं इसे रामू रजवार ने  पूर्वी नयाल नदी तट मारा था! इसकी घोड़े का नाम बिंदुली था! 
Note- अनंतदेव ने बाज बहादुर चंद के संरक्षण में
स्मृति कौस्तुभ नामक ग्रंथ लिखा! 
उधोतचंद- इसका शासनकाल 1678 से 1698 तक था! 1678 मैं इसने गढ़वाल पर आक्रमण कर बधानगढ को जीता परन्तु इस  युद्ध में इसका सेनापति मेसी साहू मारा जाता है! 
इसने डोडी के राजा देवपाल को हराया था  उनके बीच खैरागढ़ की संधि हुई अब डोडी कुमाऊं को कर देगा इस समय इसका सेनापति हेरू देउबा था! इस संधि के बाद इसने अल्मोड़ा में त्रिपुरी सुंदरी मंदिर सोमेश्वर महादेव मंदिर पार्वतीईश्वर मंदिर शुक्रेश्वर मंदिर उधोतमंदिर बनाया! 
खैरागढ़ की संधि को डोडी के राजा  कुछ समय बाद नहीं मानते और कुमाऊं पर आक्रमण करते हैं इस आक्रमण में  उधोतचंद का सेनापति शिरोमणि जोशी मारा जाता है! 
इसके अन्य कार्य-
इसने 1689 में तल्ला महल बनाया था! इसी वर्ष इसने एक लाख दीपक जलाकर देवताओं की पूजा की थी इसको ही लक्ष्य दीपावली कहा जाता है! 
किसके समय में शाहू महाराज के राज कवि मतिराम अल्मोड़ा दरबार में आए थे! 
इतने काशीपुर में आम के बगीचे लगाए जिसे अब नागनसती बाग  कहा जाता हैं! 
पंडित रुद्र दत्त पंत ने इसे तपस्वी राजा कहा है क्योंकि इस के दरबार में काफी ज्योतिष व विद्वान थे और इसने अंतिम समय में शांति की खोज में लग गया! 
ज्ञानचंद- यह 1698-1708 तक राजा बना  इसका पहला अभियान पिंडर घाटी में हुआ इसी वर्ष इतने बधाणगढ़ को लूटा! और यहां से नंदा देवी की स्वर्ण मूर्ति लाया और इसे नंदा देवी मंदिर में स्थापित किया 1703 में दूधौली के युद्ध में ज्ञान चंद्र ने फ़तेह पति साह को हराया! 
इसने  कत्यूरी में बद्रीनाथ मंदिर का निर्माण तथा बैजनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया! 


जगत चंद- इसका समय काल  1708 से 1720 तक था 1709 में गढ़वाल नरेश फ़तेहपतीसाह को हराकर श्रीनगर जीता! 
इसके संबंध मुगल सम्राट बहादुरशाह से बहुत अच्छे थे! 
यह पहला शासक था जिसने जुआरियों पर कर लगाया था! 
इसके काल को कुमाऊं में चंद्रवंश का स्वर्ण काल कहा जाता है! 
इसकी मृत्यु चेचक के कारण हुई थी! 

राजा देवी चंद-
इसके समय गैडा बिष्ट , मानिक बिष्ट, पूरनमल का  हस्तक्षेप था  जो इसके सलाहकार थे इन्होंने इसके मन में विक्रमादित्य बनाने की जिज्ञासा को जगाया जिसके कारण इसने हवालबाग में चीड़ के वृक्ष को वस्त्रों से ठगा श्रीनगर जीत ना आने के कारण हवालबाग की पहाड़ी में श्रीनगर बनायाl
नोट- 1773 का रचुलाघाट का युद्ध प्रदीप शाह  से जीता था परंतु गणाई का युद्ध प्रदीप साह से हार गया
दिल्ली का बादशाह का सेनापति/शहजादा साबिरशाह दिल्ली से भागकर इस के दरबार में आया अपने सेनापति दाऊदखां के साथ इस ने दिल्ली पर आक्रमण किया और असफल रहा
इसके पागलपंथी कार्यों के लिए एटकिंसन व रुद्र पंत ने इसी मोहम्मद बिन तुगलक कहा l
पूरनमल, गैडा बिष्ट मानिक बिष्ट इसकी हत्या कर दी उसके बाद राजा अजीत चंद बना l

अजीत चंद- इस के समय में पूरनमल मानिकचंद गैडा बिष्ट का हस्तक्षेप काफी अधिक था जिस कारण इसके काल को गैडा गैर्द्दी के नाम से जाना जाता है l
पुरनमल का संबंध उसकी पत्नी से था जिससे यह गर्भवती हो जाती है l  इसका पता अजीत चंद को पता लगता है और यह तीनों उसे मरवा देते हैं इसके बाद यह ज्ञानचंद के दमाद अजीत सिंह को गद्दी में बैठ आते हैं जो गद्दी में अजीत चंद के नाम से बैठता है परंतु इसका समय बहुत कम होता है उसके बाद अजीत चंद का नाजायज नवजात बेटा वाला कल्याण चंद गद्दी में बैठता है इसका जनता विद्रोह करती हैl
इसके बाद लक्ष्मीचंद के पुत्र नारायण चंद्र का वंशज कल्याण चंद पंचम्  गद्दी में बैठता है! 

कल्याण चंद पंचम- इसे डोटी से अनूप सिंह त्यागी हीरा चौधरी और लक्ष्मण चौधरी लाए और कुमाऊं का राजा बनाय
यह एक अनपढ़ शासक था जिसका शासन का 1729 से 1747 तक था! यह पूरणमल मानिकचंद गैडा बिष्ट को मार देता है! 
1743-44 मैं रोहिल नेता अली मोहम्मद खान ने अपने तीन सेनापति हाफिज रहमतखां, पैंदाखां, सरदार खां, के नेतृत्व में कुमाऊं में आक्रमण किया इस युद्ध में कल्याण चंद की मदद  गढ़वाल नरेद प्रदीप शाह ने की थी इस युद्ध को दूनागिरी का युद्ध में कहते हैं! इसमें रोहिल  विजेता रहे! 
रोहिलो दूसरा युद्ध 1745 में हुआ  इसमें इनका नेतृत्व नजीब खां कर रहा था  परंतु इस समय कुमाऊँ सेना का नेतृत्व शिवदत्त जोशी कर रहा था! इस युद्ध में कुमाऊं की विजय हुई! 
Imp- 
राजा कल्याणचंद के दरबार में कभी शिवदत्त थे जिन्होंने कल्याणचंद्रोदय की रचना की थी! 
इसने चोमहला महल का निर्माण कराया! 
शिवदत्त जोशी को कुमाऊ का बैरन खा कहा जाता है! 

दीपचंद- इस के समय में प्लासी का युद्ध पानीपत का युद्ध बक्सर का युद्ध हुआ था!  इसका संरक्षक शिवदत्त जोशी था! 
हैमिल्टन ने इसे गूंगा शासक कहा! 
इसी के समय मे  काशीपुर में फर्त्याल दल ने शिवदत्त जोशी को घेर कर मार दिया! 
इसकी पत्नी श्रृंगार मंजरी के संबंध परमानंद बिष्ट से थे  यह अपने भाई मोहन सिंह रौतेला को दीवान बनाना चाहती थी मोहन सिंह रौतेला ने सबसे पहले देव जोशी और उसके दो पुत्रों को सिरा कोर्ट के किले में 1777 में मरा दीया उसके बाद परमानंद श्रृंगार मंजरी जय कृष्ण जोशी( शिवदत्त  जोशी का पुत्र)  को भी मरवा दिया और हर्ष देव जोशी (शिवदत्त जोशी का पुत्र)  को बंदी बना लिया! और स्वयं राजा बन गया! 

राजा मोहन चंद- मोहन सिंह रौतेला 1777 मैं राजा मोहन चंद के नाम से गद्दी में बैठता है और 1779 तक शासन करता है इसी बीच हर्ष देव जोशी इसकी कैद से भागकर गढ़वाल नरेश ललिताशाह की मदद से इसे हर आता है और इस युद्ध में ललित शाह का नेतृत्व इसका सेनापति प्रेम चंद्र खंडूरी कर रहा होता है जो हर्ष देव जोशी की मदद से मोहनचंद को हराता है! मोहन चंद कुमाऊ से भाग जाता है! 

राजा प्रधुम्नशाह/प्रधुम्नचंद- ललित शाह का पुत्र प्रधुम्न साह  कुमाऊ के गद्दे में दीपचंद्र के गोद लिए हुए बेटे प्रदुम्न चंद के नाम से गद्दी में बैठते हैं! और कुछ समय बाद गढ़वाल में इसका भाई जय कृति शाह आत्महत्या कर लेता है और यह गढ़वाल में राजा बन जाता है कुमाऊ की गद्दी हर्ष देव जोशी को छोड़ जाता हैं! 
अतः एकमात्र शासक जो गढ़वाल व कुमाऊं में राजा बनता है! 
इस का लाभ उठाकर मोहन चंद फिर से कुमाऊं में आक्रमण करता है इस युद्ध में प्रधुम्न शाह का भाई पराक्रम शाह मोहनचंद की मदद करता है! इस युद्ध को पाली गांव का युद्ध कहते हैं इस युद्ध में मोहन चंद लाल सिंह पराक्रम शाह  एक साथ तथा हर्ष देव जोशी व प्रधुम्न शाह  एक और होते हैं इस युद्ध में हर्ष देव जोशी की हार होती है! 

मोहनचंद- मोहन चंद पहला शासक होता है जो कुमाऊ की गद्दी में दो बार शासन करता है! परंतु यह शासन 1786 से 1788 तक चलता है इस बीच हर्ष देव जोशी मोहन चंद और उसके पुत्र विशन सिंह को मार देता है! 

शिवचंद- हर्षित देव जोशी की मदद से शिवचंद राजा बनता है इसे मिट्टी का महादेव भी कहा जाता है क्योंकि इसके समय में हर्ष देव जोशी का पूर्ण हस्तक्षेप होता है लाल सिंह अपने भतीजे महेंद्र चंद्र के साथ कुमाऊं में आक्रमण करता है और इन्हें हरा देता है! 

महेन्द्र चंद- लाल सिंह स्वयं गद्दी में ना बैठ कर अपने भतीजे महेंद्र चंद्र को गद्दी में बैठा था जो इसके भाई मोहन चंद का पुत्र होता है! 
हर्ष देव जोशी पुनः गढ़वाल जाता है परंतु इसे कोई मदद नहीं मिलती फिर यह नेपाल से मदद लेता है और महेंद्र चंद पर आक्रमण करता है! 
1790 में गोरखाओं का कुमाऊं में  आक्रमण होता है और इस युद्ध में महेंद्र चंद्र की हार होती है!  और कुमाऊं में गोरखा वंश की नींव रखी जाती है!  
अतः महेंद्र चंद अंतिम चंद राजा था! 


संधि

                    संधि और उसके प्रकार
संधि-जब तो समीपवर्ती वर्णों के मेल से जो विकार या परिवर्तन होता है  उसे संधि कहते हैं यह तीन प्रकार की होती है स्वर संधि व्यंजन संधि विसर्ग संधि

स्वर संधि की परिभाषा

जब दो स्वर आपस में जुड़ते हैं या दो स्वरों के मिलने से उनमें जो परिवर्तन आता है, तो वह स्वर संधि कहलाती है। जैसे :

  • विद्यालय : विद्या + आलय 

इस उदाहरण में आप देख सकते है कि जब दो स्वरों को मिलाया गया तो मुख्य शब्द में हमें अंतर देखने को मिला। दो आ मिले एवं उनमे से एक आ का लोप हो गया।

  • पर्यावरण : परी + आवरण 

ऊपर दिए गए उदाहरण में जैसा कि आपने देखा दो स्वरों को मिलाया गया एवं उससे वाक्य में परिवर्तन आया। ई एवं आ को मिलाने से या बन गया।

  • मुनींद्र : मुनि + इंद्र 

ऊपर दिए गए उदाहरण में आप देख सकते हैं इ एवं इ दो स्वरों को मिलाया गया। जब दो इ मिलीं तो एक ई बन गयी। यह परिवर्तन हुआ।

स्वर संधि के प्रकार

स्वर संधि के मुख्यतः पांच भेद होते हैं:

  1. दीर्घ संधि
  2. गुण संधि
  3. वृद्धि संधि
  4. यण संधि
  5. अयादी संधि

1. दीर्घ संधि :

संधि करते समय अगर (अ, आ) के साथ (अ, आ) हो तो ‘आ‘ बनता है, जब (इ, ई) के साथ (इ , ई) हो तो ‘ई‘ बनता है, जब (उ, ऊ) के साथ (उ ,ऊ) हो तो ‘ऊ‘ बनता है। जब ऐसा होता है तो हम इसे दीर्घ संधि कहते है। इस संधि को ह्रस्व संधि भी कहा जाता है।

उदाहरण:

  • विद्या + अभ्यास : विद्याभ्यास (आ + अ = आ)
  • परम + अर्थ : परमार्थ (अ + अ = आ)
  • कवि + ईश्वर : कवीश्वर (इ + ई = ई)
  • गिरि + ईश : गिरीश (इ + ई = ई)
  • वधु + उत्सव : वधूत्सव (उ + उ = ऊ)

2. गुण संधि

जब संधि करते समय  (अ, आ) के साथ (इ , ई) हो तो ‘ए‘ बनता है, जब (अ ,आ)के साथ (उ , ऊ) हो तो ‘ओ‘ बनता है, जब (अ, आ) के साथ (ऋ) हो तो ‘अर‘ बनता है तो यह गुण संधि कहलाती है।

उदाहरण:

  • महा + उत्सव :  महोत्सव  (आ + उ = ओ)
  • आत्मा + उत्सर्ग : आत्मोत्सर्ग (आ + उ = ओ)
  • धन + उपार्जन : धनोपार्जन (अ + उ = ओ)
  • सुर + इंद्र : सुरेन्द्र  (अ + इ = ए)
  • महा + ऋषि : महर्षि (आ + ऋ = अर)

3. वृद्धि संधि

जब संधि करते समय जब अ , आ  के साथ  ए , ऐ  हो तो ‘ ऐ ‘ बनता है और जब अ , आ  के साथ ओ , औ हो तो ‘ औ ‘ बनता है। उसे वृधि संधि कहते हैं।

उदाहरण:

  • महा + ऐश्वर्य : महैश्वर्य (आ + ऐ = ऐ)
  • महा + ओजस्वी : महौजस्वी (आ + ओ = औ)
  • परम + औषध : परमौषध (अ + औ = औ)
  • जल + ओघ : जलौघ (अ + ओ = औ)
  • महा + औषध : महौषद (आ + औ = औ)

4. यण संधि

जब संधि करते समय इ, ई के साथ कोई अन्य स्वर हो तो ‘ य ‘ बन जाता है, जब उ, ऊ के साथ कोई अन्य स्वर हो तो ‘ व् ‘ बन जाता है , जब ऋ के साथ कोई अन्य स्वर हो तो ‘ र ‘ बन जाता है।

उदाहरण :

  • अति + अधिक : अत्यधिक (इ + अ = य)
  • प्रति + अक्ष : प्रत्यक्ष (इ + अ = य)
  • प्रति + आघात : प्रत्याघात (इ + आ = या)
  • अति + अंत : अत्यंत (इ + अ = य)
  • अति + आवश्यक : अत्यावश्यक (इ + आ = या)

5. अयादि संधि-जब संधि करते समय ए , ऐ , ओ , औ के साथ कोई अन्य स्वर हो तो (ए का अय)(ऐ का आय), (ओ का अव)(औ – आव) बन जाता है। यही अयादि संधि कहलाती है।

  • उदाहरण:

    • श्री + अन : श्रवण
    • पौ + अक : पावक
    • पौ + अन : पावन
    • नै + अक : नायक

                व्यंजन संधि 

व्यंजन संधि-जब संधि करते समय व्यंजन के साथ स्वर या कोई व्यंजन के मिलने से जो रूप में परिवर्तन होता है, उसे ही व्यंजन संधि कहते हैं।
  • यानी जब दो वर्णों में संधि होती है तो उनमे से पहला यदि व्यंजन होता है और दूसरा स्वर या व्यंजन होता है तो उसे हम व्यंजन संधि कहते हैं।

व्यंजन संधि के कुछ उदाहरण :

  • दिक् + अम्बर = दिगम्बर
  • अभी + सेक = अभिषेक
  • दिक् + गज = दिग्गज
  • जगत + ईश = जगदीश

व्यंजन संधि के नियम :

व्यंजन संधि के कुल 13 नियम होते हैं जो कि निम्न है :

नियम 1:

  • जब किसी वर्ग के पहले वर्ण (क्, च्, ट्, त्, प्) का मिलन किसी वर्ग के तीसरे या चौथे वर्ण से या (य्, र्, ल्, व्, ह) से या किसी स्वर से हो जाये तो क् को ग् , च् को ज् , ट् को ड् , त् को द् , और प् को ब् में बदल दिया जाता है।
  • अगर व्यंजन से स्वर मिलता है तो जो स्वर की मात्रा होगी वो हलन्त वर्ण में लग जाएगी।
  • लेकिन अगर व्यंजन का मिलन होता है तो वे हलन्त ही रहेंगे।

उदाहरण :

  • क् का ग् में परिवर्तन :
    • वाक् +ईश : वागीश
    • दिक् + अम्बर : दिगम्बर
    • दिक् + गज : दिग्गज
  • ट् का ड् में परिवर्तन :
    • षट् + आनन : षडानन
    • षट् + यन्त्र : षड्यन्त्र
    • षड्दर्शन : षट् + दर्शन
  • त् का द् में परिवर्तन :
    •  सत् + आशय : सदाशय
    •  तत् + अनन्तर : तदनन्तर
    •  उत् + घाटन : उद्घाटन
  • प् का ब् में परिवर्तन :
    • अप् + ज : अब्ज
    • अप् + द : अब्द आदि।

नियम 2:

  • अगर किसी वर्ग के पहले वर्ण (क्, च्, ट्, त्, प्) का मिलन न या म वर्ण ( ङ,ञ ज, ण, न, म) के साथ हो तो क् का ङ्च् का ज्ट् का ण्त् का न्, तथा प् का म् में परिवर्तन हो जाता है।

उदाहरण :

  • क् का ङ् में परिवर्तन :
    • दिक् + मण्डल : दिङ्मण्डल
    • वाक् + मय  : वाङ्मय
    • प्राक् + मुख : प्राङ्मुख
  • ट् का ण् में परिवर्तन :
    • षट् + मूर्ति : षण्मूर्ति
    • षट् + मुख : षण्मुख
    • षट् + मास : षण्मास
  • त् का न् में परिवर्तन :
  • उत् + मूलन : उन्मूलन
  • उत् + नति :  उन्नति
  • जगत् + नाथ : जगन्नाथ
  • नियम 3-
  • जब त् का मिलन ग, घ, द, ध, ब, भ, य, र, व से या किसी स्वर से हो तो द् बन जाता है।
  • म के साथ क से म तक के किसी भी वर्ण के मिलन पर ‘ म ‘ की जगह पर मिलन वाले वर्ण का अंतिम नासिक वर्ण बन जायेगा।
  • उदाहरण :
  • म् का (क ख ग घ ङ) के साथ मिलन :
  • सम् + कल्प : संकल्प/सटड्ढन्ल्प
  • सम् + ख्या : संख्या
  • सम् + गम : संगम
  • शम् + कर : शंकर
  • म् का (च, छ, ज, झ, ञ) के साथ मिलन :
  • सम् + जीवन : संजीवन
  • सम् + चय : संचय
  • किम् + चित् : किंचित
  • म् का (ट, ठ, ड, ढ, ण) के साथ मिलन :
  • दम् + ड : दंड
  • खम् + ड : खंड
  • म् का (त, थ, द, ध, न) के साथ मिलन :
  • सम् + देह : सन्देह
  • सम् + तोष : सन्तोष
  • किम् + नर : किन्नर
  • म् का (प, फ, ब, भ, म) के साथ मिलन :
  • सम् + पूर्ण : सम्पूर्ण
  • सम् + भव : सम्भव
  • त् का (ग , घ , ध , द , ब , भ ,य , र , व्) के उदहारण :
  • जगत् + ईश : जगदीश
  • भगवत् + भक्ति : भगवद्भक्ति
  • तत् + रूप : तद्रूपत
  • सत् + भावना = सद्भावना
  • नियम 4 :
  • त् से परे च् या छ् होने पर ज् या झ् होने पर ज्ट् या ठ् होने पर ट्ड् या ढ् होने पर ड् और  होने पर ल् बन जाता है।
  • म् के साथ (य, र, ल, व, श, ष, स, ह) में से किसी भी वर्ण का मिलन होने पर ‘म्’ की जगह पर अनुस्वार ही लगता है।
  • उदाहरण :

    • सम् + वत् : संवत्
    • तत् + टीका : तट्टीका
    • उत् + डयन : उड्डयन
    • सम् + शय : संशय

    नियम 5:

    • जब त् का मिलन अगर श् से हो तो त् को च् और श् को छ् में बदल दिया जाता है। जब त् या द् के साथ  या  का मिलन होता है तो त् या द् की जगह पर च् बन जाता है।

    उदाहरण:

    • उत् + शिष्ट : उच्छिष्ट
    • शरत् + चन्द्र : शरच्चन्द्र
    • उत् + छिन्न : उच्छिन्न
    • उत् + चारण : उच्चारण

    नियम 6 :

    • जब त् का मिलन ह् से हो तो त् को द् और ह् को ध् में बदल दिया जाता है। त् या द् के साथ  या  का मिलन होता है तब त् या द् की जगह पर ज् बन जाता है।

    उदाहरण :

    • उत् + हरण : उद्धरण
    • तत् + हित : तद्धित
    • सत् + जन : सज्जन
    • जगत् + जीवन : जगज्जीवन
    • वृहत् + झंकार : वृहज्झंकार
    • उत् + हार : उद्धार

    नियम 7:

    • स्वर के बाद अगर छ् वर्ण आ जाए तो छ् से पहले च् वर्ण बढ़ा दिया जाता है।
    • त् या द् के साथ ट या ठ का मिलन होने पर त् या द् की जगह पर ट् बन जाता है।
    • जब त् या द् के साथ ‘ड’ या ढ की मिलन होने पर त् या द् की जगह पर‘ड्’बन जाता है।

    उदाहरण:

    • आ + छादन : आच्छादन
    • संधि + छेद : संधिच्छेद
    • तत् + टीका : तट्टीका
    • वृहत् + टीका : वृहट्टीका
    • भवत् + डमरू : भवड्डमरू
    • स्व + छंद : स्वच्छंद

    नियम 8:

    • अगर म् के बाद क् से लेकर म् तक कोई व्यंजन हो तो म् अनुस्वार में बदल जाता है।
    • त् या द् के साथ जब ल का मिलन होता है तब त् या द् की जगह पर ‘ल्’ बन जाता है।

    उदाहरण :

    • तत् + लीन = तल्लीन
    • विद्युत् + लेखा = विद्युल्लेखा
    • किम् + चित = किंचित
    • उत् + लास = उल्लास

    नियम 9 :

    • म के बाद य, र, ल, व, श, ष, स, ह में से कोई एक व्यंजन हो तो म् अनुस्वार में बदल जाता है।

    उदाहरण:

    • सम् + योग : संयोग
    • सम् + हार : संहार
    • सम् + वाद : संवाद
    • सम् + शय : संशय

    नियम 10 :

    रू या थ्रू के बाद न तथा इनके बीच में चाहे स्वर, क वर्ग, प वर्ग , अनुश्वार , य व या ह आये तो न् का ण हो जाता है।

    उदाहरण :

    • भुष + अन : भूषण
    • प्र + मान : प्रमाण
    • राम + अयन : रामायण

    नियम 11 :

    • यदि किसी शब्द का पहला वर्ण स हो तथा उसके पहले अ या आ के अलावा कोई दूसरा स्वर आये तो स के स्थान पर ष हो जाता है।

    उदाहरण:

    • अनु + सरण : अनुसरण
    • सु + सुप्ति : सुषुप्ति
    • वि + सर्ग : विसर्ग
    • नि : सिद्ध : निषिद्ध

    नियम 12 :

    • यौगिक शब्दों के अंत में यदि प्रथम शब्द का अंतिम वर्ण न हो, तो उसका लोप हो जाता है।

    उदाहरण :

    • हस्तिन + दंत : हस्तिन्दंत
    • प्राणिन + मात्र : प्राणिमात्र
    • राजन + आज्ञा : राजाज्ञा

    नियम 13 :

    जब ष के बाद त या थ रहे तो त के बदले ट और थ के बदले ठ हो जाता है। जैसे-

    • उदाहरण:

      • शिष् + त : शिष्ट
      • पृष् + थ : पृष्ठ


     

                 विसर्ग संधि

    जब संधि करते समय  विसर्ग के बाद स्वर या व्यंजन वर्ण के आने से जो विकार उत्पन्न होता है, हम उसे विसर्ग संधि कहते हैं। जैसे:

    विसर्ग संधि के उदाहरण :

    • अंतः + करण : अन्तकरण
    • अंतः + गत : अंतर्गत
    • अंतः + ध्यान : अंतर्ध्यान
    • अंतः + राष्ट्रीय : अंतर्राष्ट्रीय

    विसर्ग संधि के नियम :

    नियम 1:

    अगर कभी शब्द में विसर्ग के बाद च या छ हो तो विसर्ग श हो जाता है। ट या ठ हो तो ष तथा त् या थ हो तो स् हो जाता है। जैसे:

    उदाहरण:

    • नि: + चल : निश्चल
    • धनु: + टकार : धनुष्टकार
    • नि: + तार : निस्तार

    नियम 2:

    अगर कभी संधि के समय विसर्ग के बाद श, ष या स आये तो विसर्ग अपने मूल रूप में बना रहता है या उसके स्थान पर बाद का वर्ण हो जाता है।

    उदाहरण : 

    • नि: + संदेह : निस्संदेह
    • दू: + शासन : दुशासन

    नियम 3:

    अगर संधि के समय विसर्ग के बाद क, ख या प, फ हों तो विसर्ग में कोई विकार नहीं होता।

    उदाहरण: 

    • रज: + कण : रज:कण
    • पय: + पान : पय:पान

    नियम 4:

    अगर संधि के समय विसर्ग से पहले ‘अ’ हो और बाद में घोष व्यंजन या ह हो तो विसर्ग ओ में बदल जाता है।

    उदाहरण :

    • मनः + भाव : मनोभाव
    • यशः + दा : यशोदा

    नियम 5:

    अगर संधि के समय विसर्ग से पहले अ या आ को छोड़कर कोई अन्य स्वर हो तथा बाद में कोई घोष वर्ण हो तो विसर्ग के स्थान र आ जाता है। जैसे: 

    उदाहरण :

    • निः + गुण : निर्गुण
    • दु: + उपयोग : दुरूपयोग

    नियम 6:

    अगर संधि के समय विसर्ग के बाद त, श या स हो तोविसर्ग के बदले श या स् हो जाता है। जैसे: 

    उदाहरण :

    • निः + संतान :  निस्संतान
    • निः + तेज़ : निस्तेज
    • दु: + शाशन : दुश्शाशन

    नियम 7:

    अगर संधि करते समय विसर्ग से पहले अ या आ हो तथा उसके बाद कोई विभिन्न स्वर हो, तो विसर्ग का लोप हो जाता है एवं पास-पास आये हुए स्वरों की संधि नहीं होती। जैसे:

    उदाहरण:

    • अतः + एव : अतएव

    नियम 8:

    • अंत्य के बदले भी विसर्ग होता है। यदि के आगे अघोष वर्ण आवे तो विसर्ग का कोई विकार नहीं होता और यदि उनके आगे घोष वर्ण आ जाता है तो र ज्यों का त्यों रहता है। जैसे: 

    उदाहरण:

    • पुनर् + उक्ति : पुनरुक्ति
    • अंतर् + करण : अंतःकरण

Wednesday, January 26, 2022

वर्णमाला व्यंजन

                    व्यंजन

व्यंजन  :- जो वर्ण स्वर की सहायता से बोले जाते हैं, उन्हें व्यंजन कहा जाता है। किसी वर्ण का उच्चारण करते समय हवा फेफड़ो से बाहर निकलकर जब मुख में आती है और वह रुककर अथवा किसी अवरोध के साथ बाहर निकलती है तो उसे व्यंजन  कहा जाता है।

 व्यंजन के भेद कितने होते हैं। – 

1 . स्पर्श व्यंजन (25)

2 . अंतःस्थ (4)

3 . उष्म (4)

4 . उत्तिक्षप्त (2)

 

1 . स्पर्श व्यंजन-जो व्यंजन कंठ, तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ आदि स्थानों के स्पर्श से बोले जाते हैं, वे स्पर्श व्यंजन कहलाते हैं। इनको वर्गीय व्यंजन भी कहा जाता है। ‘क’ से लेकर ‘म’ तक के वर्ण स्पर्श व्यंजन कहलाते हैं।

य्, व्’ का उच्चारण न तो पूर्ण स्वर की तरह होता हैं और न ही पूर्ण व्यंजन की तरह होता हैं, अतः इन्हें “अर्द्ध स्वर” भी कहा जाता है।

3 . ऊष्म व्यंजन- जिनके  उच्चारण किसी रगड़ या घर्सन से उत्पन ऊष्मा वायु से होता हैं, वे ऊष्म व्यंजन कहलाते हैं।जैसे- श्, ष्, स्, ह्


4 . उत्तिक्षप्त व्यंजन-व्यंजन स्वर रहित होते हैं। जैसे क्, प्, त् आदि। जब इनमें अ स्वर मिलता है तब इनका हलन्त मिट जाता है और ये क्रमशः क, प, त रूप में आते हैं। शब्द का निर्माण स्वर और व्यंजन के मेल से ही होता है।जैसे-ड़, ढ़।


उच्चारण के समय स्वर-तंत्रियों में कम्पन के आधार पर भेद-उच्चारण के समय स्वर-तंत्रियों में कम्पन के आधार पर हिंदी वर्णमाला के निम्न दो भेद होते हैं -

1. अघोष

2 . सघोष

1 . अघोष व्यंजन-जिन ध्वनियों के उच्चारण में स्वर-तंत्रियों में कम्पन नहीं होता है, उन्हें ‘अघोष’ कहते हैं। इनमें प्रत्येक वर्ग का प्रथम व् द्वितीय वर्ण एवं श्, ष्, स्, शामिल हैं।

 

2 . सघोष व्यंजन -जिन ध्वनियों के उच्चारण में स्वर-तंत्रियों में कम्पन होता है, उन्हें ‘सघोष’ कहते हैं। सघोष ध्वनियों का उच्चारण करते समय यदि कण्ठ पर हाथ रख कर देखें तो कम्पन का आभास होगा। इनमें अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ (सभी स्वर), प्रत्येक वर्ग का तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम वर्ण एवं य्, र्, ल्, व्, ह् शामिल हैं।

संयुक्त व्यंजन - जो व्यंजन 2 या 2 से अधिक व्यंजनों के मिलने से बनते हैं उन्हें संयुक्त व्यंजन कहा जाता है। संयुक्त व्यंजन एक तरह से व्यंजन का ही एक प्रकार है। संयुक्त व्यंजन में जो पहला व्यंजन होता है वो हमेशा स्वर रहित होता है और इसके विपरीत दूसरा व्यंजन हमेशा स्वर सहित होता है।

संयुक्त व्यंजन की हिंदी वर्णमाला में कुल संख्या 4 है जो की निम्नलिखित हैं।

क्ष - क् + ष = क्ष

त्र - त् + र = त्र

ज्ञ - ज् + ञ = ज्ञ

श्र - श् + र = श्र

प्राणत्व के आधार पर- इसे दो भागों में बांटा गया है
1- अल्पप्राण- जिन व्यंजनों के उच्चारण में मुख से कम हवा निकलती है उसे अल्पप्राण कहते हैं हर वर्ग का पहला तीसरा पांचवा व्यंजन अल्पप्राण है अंतस्थ व्यंजन अल्पप्राण के अंतर्गत आते हैं! 
2- महाप्राण- जिन व्यंजनों के उच्चारण में मुख से हवा अधिक निकलती है उन्हें महाप्राण वर्ण कहते हैं हर वर्ग का दूसरा व चौथा व्यंजन प्रथा संघर्षी व्यंजन महाप्राण की श्रेणी में आते हैं! 
 महत्वपूर्ण चित्र अध्ययन-

Sunday, January 23, 2022

कार्तिकेय पुर राजवंश

                 कार्तिकेयपुर राजवंश
उत्तराखंड के इतिहास का पहला ऐतिहासिक राजवंश इसे ही माना जाता है इसका समयावधि लगभग 700 ई. से 1100 ई. का माना जाता है! इस वंश के अंतर्गत तीन परिवार आते थे! जिसमें 14 राजाओं ने शासन किया था! 
प्रथम परिवार (बसंत देव राजवंश) 
द्वितीय परिवार (निम्बर देव राजवंश) 
तृतीय परिवहन (सलोणादित्य राजवंश) 

कार्तिकेयपुर राजवंश का मूल स्थान- इतिहासकार लक्ष्मीधर जोशी और बद्री दत्त पांडे के अनुसार यह अयोध्या के सूर्यवंशी थे! उत्तराखंड में मूल कार्तिकेय पुर का स्थान जोशीमठ चमोली माना जाता है किंतु तो यह भी संभव है कि कार्तिकेयपुर  मूल रूप से वर्तमान कार्तिकेय मंदिर क्षेत्र रुद्रप्रयाग भी हो सकता है कार्तिकेयपुर राज्य इष्ट देवता कार्तिकेय स्वामी थे ताम्रपत्र से स्पष्ट होता है कि  कत्युरी शासकों की राजभाषा संस्कृति तथा लोकभाषा संभवत प्राकृति थी! 

प्रथम शाखा  (बसंतदेव राजवंश)-
1- बसंतदेव- यह कन्नौज के राजा यशोवर्मन का सामंत था! जो ललितादित्य मुक्तापीड के आक्रमण के बाद स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर देता है और बसंत देव राजवंश की स्थापना करते हैं  इतने जोशीमठ के पास कार्तिकेयपूर को अपनी राजधानी बनाया इस वंश की जानकारी बागेश्वर शिलालेख से मिलती है बागेश्वर से प्राप्त त्रिभुवन राज के शिलालेख से पता चलता है कि इस वंश का संस्थापक बसंत देव था
बागेश्वर अभिलेख से यह पता चलता है कि बसंत देव ने शरणेश्वर ग्राम में वैष्णवों को भूमि दान दी थी इसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी और जोशीमठ में नरसिंह मंदिर व बागेश्वर के मंदिरों का निर्माण करें बागेश्वर अभिलेख  मैं इसकी पत्नी का नाम सज्यनारा मिलता है यह शैव धर्म को मानता था! 
Note- कुछ किताबों में बसंत देव की पत्नी राज नारायणी देवी उत्तीर्ण है! 
बसंत देव के बाद के राजा का नाम वर्णन नहीं है उसके बाद खर्परदेव का नाम आता है! 
2- खर्परदेव- इसकी पत्नी का नाम कल्याणी देवी था इसने भी परमभट्ठारक महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी  इसके बाद इसका पुत्र कल्याण राज अर्थात अधिधज राजा बना! 

3- कल्याण राज- उसकी पत्नी का नाम लद्धा देवी था! उसके बाद त्रिभुवन राज गद्दी में बैठा! 

4- त्रिभुवन राज- बसंत देव के समान त्रिभुवन महाराजाधिराज परमेश्वर तथा परमभट्ठारक की उपाधि धारण की थी  त्रिभुवन राज अपने दानवीर प्रगति के लिए जाना जाता था इसने कई मंदिरों के लिए भूमि दान की थी यह इस वंशिका अंतिम राजा था इसलिए किरातों तथा शोखा जनजाति से मैत्री संबंध स्थापित किए थे इसके किरात मित्र द्वारा गंवियपिंड देवता को  ढाई द्रोण दान दिए जाने का जिक्र भी प्राप्त होता है! 
नालंदा अभिलेख से पता चलता है कि धर्मपाल ने त्रिभुवनराज के समय उत्तराखंड में आक्रमण किया और इस समय का फायदा उठाते हुए निम्बर राजवंश ने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की! 

👉 द्वितीय परिवार (निम्बर राजवंश)-
राजा निम्बर- पांडुकेश्वर ताम्रपत्र तथा बागेश्वर शिलालेखों से इस वंश के राजाओ की जानकारी मिलती है! 
राजा निम्बर इस राजवंश का स्थापक था जो शैव  का अनुयाई था! और भगवती नंदा का आराधक था! 
इसकी पत्नी का नाम दाशु या नाथु देवी था! उसके पुत्र का नाम इष्टगण था! 
Note-
निम्बर को  पांडुकेश्वर ताम्रपत्रों मे श्री निम्वरम् तथा बागेश्वर शिलालेख मे निंबर्त कहा है! 
ललितसुर देव के ताम्रपत्रों में उसकी प्रशंसा की गई है! 

इष्टगण- यह पहला शासक था जिसने संपूर्ण उत्तराखंड को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया  इसने परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर की उपाधि धारण की  इसकी पत्नियों के नाम वेगादेवी और धरा देवी मिलता है!  धरा देवी  के पुत्र का नाम ललितसूर देव था जो बाद में राजा बनता है इसके ताम्र अभिलेखों में इष्टगण को परममाहेश्वर और परम ब्राह्मण कहा गया है! 
 Note- इसने तराई भाबर क्षेत्र में शत्रु को हराया था! 
इसने जागेश्वर में नव दुर्गा मंदिर,लवलीश  मंदिर तथा नटराज मंदिर का निर्माण कराया था! 

 ललितसुर देव- यह 832ई.में गद्दी में बैठा इसने अपने पिता की भांति परम भट्ठारक महाधिराज परमेश्वर की उपाधि धारण की! 
की अन्य उपाधि परममाहेश्वर तथा  परम ब्राह्मण थी! 
पांडुकेश्वर से इसके दो ताम्र अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिसमें इसे वाराहअवतार के सामान बताएं! 
इस की दो पत्नियां थी लया देवी और सामा देवी थी! सामा देवी के पुत्र का नाम  भूदेव था जो इसके बाद राजा बनता है! 
Note- बागेश्वर में बैजनाथ मंदिर का निर्माण भूदेव ने कराया परंतु यहां नारायण मंदिर का निर्माण सामा देवी ने कराया! 

भूदेव- यह कट्टर ब्राह्मण धर्मावलम्बी था  इसकी उपाधि परम भट्ठारक महाराजअधिराज परमेश्वर,  परम ब्राह्मण भक्त तथा बुद्ध श्रवण शत्रु थी! 
इसने बागेश्वर में शिलालेख उत्तीर्ण कराया था  इस वंश की राजधानी बागेश्वर की गरुड़ घाटी एवं कार्तिकेयपुर दोनों थी!  
इसके बाद सलोणादित्य वंश का उदय हुआ! 

सलोणादित्य वंश- इस वंश की जानकारी हमें पांडुकेश्वर ताम्रपत्र तथा देशटदेव के बालेश्वर ताम्रपत्र  से पता चलती है! इस वंश का पहला शासक सलोणादित्य था! 
सलोणादित्य- इसकी पत्नी का नाम सिंधवली देवी था  इसे अभिलेखों में भानुदित्य की भांति स्वभुजा से राज्य प्राप्त करने वाला शासक कहा गया है! 

इच्छटदेव- सलोणादित्य के पुत्र पदमटदेव के ताम्रपत्र में इसे ब्राह्मण भक्त शासक कहां है इसकी रानी का नाम सिंधु देवी था इसका राज्य वर्तमान चंपावत पिथौरागढ़ क्षेत्र तक विस्तृत था! 

देशटदेव- ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि इसने अपने शासन के 5 वर्ष विजयेश्वर मंदिर को एशाल विषय के अंतर्गत यमुना नामक ग्राम अग्रहार के रूप में दिया! यह राजा दीन दुखियों का रक्षक एवं स्वर्ण दानदाता के नाम से भी जाना जाता है! इसकी पत्नी का नाम पझल्ल देवी था इन के पुत्र का नाम पदम देव था जो देशटदेव  के बाद राजा बनता है! 

Note-  देशटदेव  का चंपावत के बालेश्वर मंदिर में ताम्रपत्र है जिसमें किसी शत्रु के प्रयास को विफल बनाने वाला कहा गया है! 

पद्मदेव- इसका ताम्रपत्र पांडुकेश्वर से प्राप्त हुआ जिससे हमें पता चलता है कि इसने 25 वर्ष से अधिक दान किया तथा अपने शासन के 25 वर्ष बद्रीनाथ मंदिर के नाम पर भूमि दान की इसके बाद का पुत्र सुभिक्षराज गद्दी में बैठता है! सुमिक्षराज के ताम्रपत्र में इसे  परम माहेश्वर,ब्राह्मण भक्त एवं सूर्य के समान प्रकाशवान, कर्ण, दधीचि, चंद्रगुप्त से अधिक दानदाता कहा गया है! 

सुभिक्षराज - इसे वैष्णव तथा परम ब्राह्मण का जाता है यह शास्त्रों के अनुसार शासन करने वाला शासक था इसने सुभिक्षपुर नामक नगर बताया और इसे अपनी राजधानी बनाया! यह कार्तिकेयपुर राजवंश का अंतिम शासक था

 Note- जागरों एवं पवांडो के अनुसार सुभिक्षराज के पुत्र नरसिंह के द्वारा कार्तिकेयपुर से बैजनाथ यानी कत्यूरी घाटी राजधानी  स्थानांतरित की! 






वर्णमाला

                  वर्णमाला का परिचय
अभिव्यक्ति की सार्थक लघुत्तम वाक् ध्वनि को वर्ण कहते हैंl
Important-
👉 भाषा की सबसे छोटी मौखिक इकाई ध्वनि है! 
👉 भाषा की सार्थक लघुतम इकाई शब्द कहलाती है! 
👉 पद की सबसे छोटी इकाई अक्षर है! 
👉 भाषा की सार्थक इकाई वाक्य है! 
वर्णों के व्यवस्थित समूह को वर्णमाला कहते हैंl
हिंदी वर्णमाला-
हिंदी वर्णमाला में कुल वर्ण 52 है है परंतु इनकी मूल संख्या 44 है इसमें स्वरों की मूल संख्या 11 व व्यंजनों की मूल संख्या 33 हैl
Note- स्वर की संख्या 11 तथा व्यंजनों की कुल संख्या 39 और दो अयोगवाह वर्ण (अं,अ:) होते हैं इनको मिलाकर कुल वर्णमाला मे वर्णों की संख्या 52 होती है! 

                           वर्ण के भेद
हिंदी वर्णमाला में वर्णों के दो भेद होते हैं-
स्वर वर्ण
व्यंजन वर्ण

स्वर वर्ण- जिनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है और बोलने में कम समय लगता है उन्हें स्वर कहते हैं!
 
Note- वर्ण के उच्चारण में लगने वाले समय को मात्रा कहते हैं 'अ' को छोड़कर प्रत्येक स्वर की मात्रा होती है! 

स्वर के मुख्यतः तीन भेद होते हैं-
ह्रस्व स्वर/लघु स्वर/मूल स्वर- जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय लगे उन्हें मूल स्वर कहते हैं! 
यह चार प्रकार के होते हैं- अ,इ,उ, ऋ
नोट- वर्ण के उच्चारण में लगने वाले समय को मात्रा कहते हैं! 
'ऋ' लिखने की दृष्टि से स्वर है परंतु उच्चारण की दृष्टि से व्यंजन है! 

दीर्घ स्वर/संयुक्त स्वर- जिन स्वरो के उच्चारण में मूल स्वर से दुगना समय लगे उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं ये 7 प्रकार के होते हैं-
आ- अ/आ+अ/आ
ई- इ/ई+इ/
ऊ-उ/ऊ+उ/ऊ
ए- अ/आ+इ/ई
ऐ-अ/आ+ए/ऐ
ओ- अ/आ+उ/ऊ
औ- अ/आ+ओ/औ
Note- ए,ओ  को शुद्ध संयुक्त स्वर कहते हैं! 

3- प्लुत स्वर- वे स्वर जिनके उच्चारण में मूल स्वर से समय लगे  और नाटक की व्यंग के लिए प्रयोग किया जाए- ओऊम (ॐ) 

स्वर के अन्य प्रकार-
👉 जीभ  की क्रियाशीलता के आधार- इसके स्वर तीन प्रकार के होते है-

1-अग्र स्वर- जिन स्वरों के उच्चारण में जीभ का अग्रभाग सक्रिय होता हो वह अग्रस्वर कहलाते है! 
यह चार प्रकार के होते हैं- इ,ई, ए,ऐ

2-मध्य स्वर- जिन स्वरो के उच्चारण में जीभ का मध्य भाग सक्रिय होता है उन्हें मध्य स्वर कहते हैं- अ

3-पश्च स्वर- वे स्वर जिनके के उच्चारण में जीभ का पश्च भाग सक्रिय होता हो उन्हें पश्च स्वर कहते हैं- आ, उ, ऊ, ओ, औ, ऑ

Note- 'ऑ' का प्रयोग अंग्रेजी शब्दों के लिए किया जाता है- कॉलेज डॉक्टर इत्यादि

👉ओष्ठों के गोलाई के आधार पर- होठों/ओष्ठों की गोलाई के आधार पर स्वरो  को दो भागों में बांटा गया-
1- व्रत्तमूखी  स्वर- जिन स्वरों के उच्चारण में होठों का आकार गोलाकार होता है उन्हें व्रत्तमूखी या वृत्ताकार स्वर कहते हैं- उ, ऊ, ओ, औ, ऑ

2-अव्रत्तमुखी स्वर- जिन स्वरो के उच्चारण मे होठों का आकार वृत्ताकार ना हो उन्हें अव्रत्तमुखी या अव्रत्तमुखी स्वर कहते है- अ, आ, इ, ई, ए, ऐ

👉मुखाकृति के आधार पर स्वरों का वर्गीकरण-

1. संवृत स्वर-संवृत स्वर के उच्चारण में मुख द्वार सकरा हो जाता है। ये संख्या में चार होते है - इ , ई , उ , ऊ 

2. अर्द्ध संवृत स्वर -अर्द्ध संवृत स्वर के उच्चारण में मुख द्वार कम सकरा होता है। ये संख्या में 2 होते है - ए , ओ 

3. विवृत स्वर-विवृत स्वर के उच्चारण में मुख द्वार पूरा खुला होता है। ये संख्या में 2 है - आ , आँ 

4. अर्द्ध विवृत स्वर-अर्द्ध विवृत स्वर के उच्चारण में मुख द्वार अधखुला होता है। ये संख्या में 4 होते है - अ , ऐ , औ , ऑ


👉 हवा के मुंह या नाक से निकलने के आधार पर- हवा के मुंह या नाक से निकलने के आधार पर स्वरों को दो भागों में बांटा गया! 
1-अनुनासिक स्वर-  जिन  स्वरो  के उच्चारण में वायु मुख के साथ-साथ नाक से बाहर निकलती है उन्हें अनुनासिक स्वर कहते हैं अनुनासिक स्वरूप को चंद्रबिंदु लगाकर दिखाया जाता है- जैसे- अँ,एँ, 
अन्य उदाहरण शब्द रूप - अंधेरा आंखें ऊँट

2- निरनुनासिक- जिन स्वरों के उच्चारण में धोनी केवल मुख से बाहर निकलती है अर्थात वर्णमाला के 11 स्वर निरनुनासिक के अंतर्गत आते हैं! 
जैसे- अ,आ, ई....... .............. ओ, औ

👉 जाति के आधार पर स्वर- जाति के आधार पर स्वरों को दो भागों में बांटा गया-
1-सवर्ण/सजातीय स्वर- जिन  स्वरूप का उच्चारण समाधि स्थान और समान प्रयत्न से हो सवर्ण स्वर कहलाते हैं- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ
2-असवर्ण/विजातीय स्वर- वे स्वर जिन का उच्चारण स्थान अलग और प्रयत्न भी अलग असवर्ण स्वर कहलाते हैं- ए, ऐ, ओ, और

👉 उच्चारण स्थान के आधार पर स्वर- स्वरों के उच्चारण के समय जीह्वा मुख के विभिन्न भागो को स्पर्श करती है इस आधार पर इनका वर्गीकरण निम्न है-
(1) कण्ठय् स्वर – अ, आ, अः
(2) तालव्य स्वर – इ, ई
(3) मूर्धन्य स्वर – ऋ
(4) ओष्ठम स्वर – उ, ऊ
(5) कण्ठ तालव्य स्वर – ए, ऐ
(6) कण्ठ ओष्ठ स्वर – ओ, औ
(7) नासिक्य स्वर – अं
👉नोट- अं,अ: अयोगवाह वर्ण होते हैं अं को  अनुस्वार और अ: को विसर्ग कहते है! इनको स्वरों की श्रेणी में नहीं रखा जाता है! 
👉 सभी स्वर सघोष तथा अल्पप्राण होते हैं! 
Note-  सघोष का अर्थ होता है जिन्हें बोलने में   कंपन उत्पन्न हो और अल्पप्राण में होता है  जिनके उच्चारण करने पर हुआ मुख से कम बाहर निकले ! 


                                 व्यंजन

लेखन जारी है........... 



Saturday, January 22, 2022

देवनागरी लिपि का विकास और गुण तथा दोष

                    देवनागरी लिपि
प्राचीन काल में सिंधु लिपि खरोष्ठी लिपि तथा ब्राह्मी लिपि थी ब्राह्मी लिपि की दो शैली थी दक्षिणी शैली तथा उत्तरी शैली! 
उत्तरी शैली से गुप्त लिपि का विकास हुआ है और  गुप्त लिपि से सिद्धमात्रिका लिपि (कुटिका लिपि) और सिद्धमात्रिका  लिपि से देवनागरी तथा शारदा लिपि का विकास हुआ! 

देवनागरी लिपि का नामकरण-
नागलिपि से- ललिता विस्तार  में नाग लिपि की चर्चा की गई है कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इसी नाग लिपि से नागरी लिपि का जन्म हुआ है! 
नगर से- कुछ विद्वानों का मत है कि यह लिपि नगरों में विकसित हुई इसलिए इसे नागरी लिपि कहते हैं! 
नागर ब्राह्मण से- देवनागरी लिपि का पहला साक्षी गुजरात के राजा जय भट्ट के अभिलेखों  में मिलता है और गुजरात के नागर ब्राह्मण के कारण इसे नागरी लिपि कहा जाता है! 
नागर व देव से- कुछ इतिहासकारों का मानना है कि चंद्रगुप्त को देव तथा पाटलिपुत्र को नगर कहा जाता था इसका विकास यहीं से हुआ है इसलिए इसका नाम देवनागरि पड़ा! 
स्थापत्य शैली नाम पर- डॉक्टर धीरेंद्र वर्मा के अनुसार मध्यकाल में स्थापत्य इस शैली नागर शैली थी जिस कारण इसका नाम नागर शैली के कारण पड़ा! 

देवनागरी लिपि का विकास- 
1- फोर्ट विलियम कॉलेज अध्यक्ष जॉन गिलक्राइस्ट देवनागरी लिपि के विरोधी थे तथा वह फारसी लिपि को प्रोत्साहन देना चाहते थे और हिंदी के स्थान पर हिंदुस्तानी भाषा का प्रयोग करना चाहते हैं परंतु विलियन प्राइम ने 1813 में फारसी के स्थान में देवनागरी तथा हिंदुस्तानी के स्थान पर हिंदी भाषा को प्रोत्साहन देने की बात की! 

2- राजा सितारे हिंद ने 1868 में फारसी के स्थान पर देवनागरी लिपि का प्रयोग करने के लिए  अहम भूमिका निभाई! 

3- पंडित गौरी दत्त जी ने 874 में नागरिक प्रकाश पत्र निकाला जिसने देवनागरी के विकास और सुधार में अहम भूमिका निभाई! 

4- 1893 में पंडित मदन मोहन मालवीय ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की तथा कचहरी भाषा में फारसी लिपि के  स्थान में देवनागरी लिपि के प्रयोग की बात की जो 1898 में सफल हुई

5- 1928 में नेहरू समिति ने रिपोर्ट दी और कहा देवनागरी लिपि तथा फारसी लिपि मिश्रित हिंदुस्तानी भाषा देश की राज्य भाषा होगी! 

6- संविधान सभा ने 14 सितंबर 1949 को  अनुच्छेद 343(1) के अनुसार संस्कृत मिश्रित खड़ी बोली से विकसित हिंदी भाषा भारत की राजभाषा होगी जो देवनागरी लिपि  लिखी जाएगी! 

देवनागरी लिपि के गुण-
👉यह बाएं से दाएं लिखी जाने वाली अक्षरात्मक लिपि है जिसका विकास वर्णनात्मक लिपि से हुआ है! 
👉 प्रत्येक ध्वनि के अलग वर्णों की व्यवस्था है  और ध्वनि का नाम ही वर्ण का नाम है अर्थात हर वर्ण अपनी स्वतंत्र ध्वनि रखता है! 
👉 इसमें मुक वर्ण नहीं होता है  एक वर्ण में दूसरे का भ्रम नहीं होता है! 
👉 राहुल सांकृत्यायन के अनुसार यह दुनिया की सबसे अधिक वैज्ञानिक लिपि है! 
👉 देवनागरी लिपि का व्यापक प्रयोग किया जाता है संस्कृत हिंदी नेपाली मराठी इत्यादि  भाषाएं देवनागरी लिपि के अंतर्गत आती हैl

देवनागरी लिपि की कमियां-
👉 मुद्रण में कठिनाई क्योंकि इसमें टाइप/अक्षर बहुत अधिक हैl
👉 मात्राओं का प्रयोग दाएं बाएं ऊपर नीचे होता हैl
👉 त्वरालेखन  का अभाव बहुत अधिक दिखता है l
👉 कुछ ऐसी दुनिया है जिनके चिन्ह एक से अधिक होते हैं जैसे-   'र'   की मात्रा
👉 कुछ वर्ण भ्रम की स्थिति पैदा करते है जैसे ख,रव

व्यक्तिगत रूप से देवनागरी लिपि में सुधार के प्रयास-
👉 1964 में बाल गंगाधर तिलक ने तिलक फाण्ट का निर्माण किया इसका प्रयोग उन्होंने केसरी नामक पत्रिका में किया इन्होनें 403 टाइप को 190 टाइप मे बदला! 
👉 सावरकर बंधु अ की बारघड़ी लाए- अ आ अ्इ.....  जिसका प्रयोग हरिजन सेवक नामक पत्रिका में महात्मा गांधी ने किया! 
👉 श्यामसुंदर बजाज ने पंचमाक्षर के स्थान में अनुस्वार का प्रयोग को प्राथमिकता दी-
गंड्गा 👉 गंगा

विभिन्न संस्थानों द्वारा देवनागरी के विकास में किए गए कार्य-
👉 1935 में हिंदी साहित्य सम्मेलन इंदौर में हुआ इसके संयोजक काकासाहेब कालेकर व अध्यक्ष  महात्मा गांधी थे इस समिति ने नागरी  लिपि सुधार समिति की स्थापना की! 
👉 आचार्य नरेंद्र देव ने 21 जुलाई 1947 को नागरी लिपि सुधार परिषद का गठन किया जिसने अपने रिपोर्ट 25 मई 1949 को दिए 1953 में इस समिति की अध्यक्षता डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कि यह सम्मेलन लखनऊ में हुआ! 
❤ सुमिति कुमार चटर्जी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने देवनागरी लिपि की जगह रोमन लिपि का प्रयोग को प्राथमिकता दी✌

हर्ष के पश्चात उत्तराखंड की स्थिति

              हर्ष के पश्चात मध्य हिमालय
हर्ष के  पश्चात हिमालय क्षेत्र बरहमपुर शत्रुघ्न और गोविषाण राज्य में टूट गया इनमें सबसे बड़ा राज्य बरहमपुर राज्य था! 
                       ब्रह्मपुर राज्य
यह राज्य गंगा से लेकर करनाली नदी तक फैला हुआ था यह राज्य पौरव राजवंश के अधीन था! इनका शासन यहां 6वि सदी से आठवीं सदी तक रहा यह राजा सोनवंशी राजा थे! 1915 में अल्मोड़ा के तारकेश्वर से  इस वंश का ताम्रपत्र मिला जिसमें धुतिवर्मन, विषणुवर्मन, विषवर्मन, अग्निवर्मन धुतिवर्मन  के नामों का वर्णन है! यह राजा महाराजा अधीराज परम भट्ठारक की उपाधि लेते थे इनके कुलदेवता विरणेश्वर स्वामी थे! 
बरहमपुर राज्य को इंद्र की राजधानी और नगरों में श्रेष्ठ के रूप में जाना जाता है तामपत्रो मे इसकी राजधानी तालकेश्वर छेत्र मानी जाती है ! 
 Note-
पर्वताकार वंश के अभिलेखों की भाषा संस्कृत भाषा तथा लिपि गुप्त ब्राह्मी लिपि थी इनके ताम्रपत्र के साथ एक अंडाकार मुद्रा जोड़ी थी जिसमें वृषभ मकर और गरुड़  के चित्र अंकित थे  इन मुद्राओं में संस्कृत भाषा तथा कुटिला लिपि अंकित थीl
इनके शासकों के निवास स्थान को कोट कहा जाता था
पौरव शासकों के आय का मुख्य स्त्रोत भूमि कर था जिसे भाग कहा जाता था इसे वसूल करने वाले अधिकारी को मार्गक कहा जाता था
इस वंश में सिंचित क्षेत्र को केदार तथा गैर सिंचित क्षेत्र को सारी कहा जाता था! 
भूमि माप के लिए द्रोणवाप
खारीवाप और कुल्यावाप विधि का प्रयोग किया जाता है! 

                       शत्रुघ्न राज्य
हवेनसांग के अनुसार इस राज्य की पूर्वी सीमा गंगा व उत्तर में हिमालय और राज्य के मध्य से यमुना नदी बहती थी लेकिन कनिंघम के अनुसार यह राज्य सिरमौर का हिस्सा था! 

                        गोविषाण
इसे वर्तमान में काशीपुर के नाम से जाना जाता है कनिंघम के अनुसार गोविषाण  राज्य में काशीपुर के साथ-साथ रामपुर और पीलीभीत जनपद भी थे इसका विस्तार रामगंगा से लेकर शारदा तक था ! 

कंप्यूटर विज्ञान

                      कंप्यूटर विज्ञान
कंप्यूटर एक ऐसी इलेक्ट्रॉनिक्स डिवाइस है  जो इनपुट प्राप्त करके उसे प्रोसेस करता है तथा सूचना प्राप्त करने के लिए आवश्यक निर्देशों का पालन करता है! 
चार्ल्स बैबेज को आधुनिक  कंप्यूटर का सर्वप्रथम विचार देने के कारण कंप्यूटर का पिता कहा जाता है! 
1937 ईस्वी में मार्क-1 नाम के प्रथम के  कंप्यूटर का निर्माण किया गया! 
भारत में कंप्यूटर का विकास 1955 स्पीच से प्रारंभ हुआ परंतु 1984 ईस्वी में जाकर ही इसे पर्याप्त महत्व मिला! 
1998 ईस्वी में भारत ने सुपर कंप्यूटर परम 1000 का विकास कर संपूर्ण विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया! 
कंप्यूटर मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं;-
1-माइक्रो कंप्यूटर 
2-सुपर कंप्यूटर 
3-मेनफ्रेम कंप्यूटर 
4-मिनी कंप्यूटर

1- माइक्रो कंप्यूटर- यह सबसे कम शक्तिशाली किंतु सबसे अधिक प्रचलित कंप्यूटर है कंप्यूटरों में सर्वाधिक प्रयोग इन्हीं का होता है यह चार प्रकार के होते हैं डेस्कटॉप ,नोटबुक, टेबलेट पीसी और हैंडहेल्ड कंप्यूटर
हैंडहेल्ड कंप्यूटर को पामटॉप कंप्यूटर भी कहते हैं! 

2- सुपर कंप्यूटर- यह सबसे शक्तिशाली कंप्यूटर होता है इनका  स्मृति भंडार 52 मेगाबाइट से अधिक होता है और यह 500 एम फ्लाप की क्षमता से कार्य करते हैं परम-10000 स्तर का सुपर कंप्यूटर एशिया में भारत के अतिरिक्त मात्र जापान के पास है! 

3- मेनफ्रेम कंप्यूटर- यह विशेष रूप से बने वातानुकूलित कमरे में रखे जाते हैं यह सुपर कंप्यूटर की तरह शक्तिशाली नहीं होते हैं लेकिन इनकी प्रोसेसिंग की गति एवं भंडारण क्षमता बहुत अधिक होती है बीमा कंपनी तथा अन्य प्रकार की कंपनी में इनका प्रयोग किया जाता है! 

4- मिनी कंप्यूटर- इन्हें मिडरेंज कंप्यूटर भी कहा जाता है इनका आकार रेफ्रिजरेटर के बराबर होता है इनका प्रयोग मुख्यतः  बड़ी कंपनियों में होता है! 

कार्य पद्धति के आधार पर कंप्यूटर के पांच प्रकार होते है-
अंकीय कंप्यूटर 
शंकर कंप्यूटर 
अनुरूप कंप्यूटर 
प्रकाशीय कंप्यूटर 
आणविक कंप्यूटर

कंप्यूटर दो पद्धतियों में कार्य करता है पहले तो इसके निर्माण यंत्रों एवं उपकरणों से होता है तथा फिर उसके संचालन के लिए विभिन्न प्रकार के प्रोग्रामों का निर्माण किया जाता है इस आधार पर कंप्यूटर की दो पद्धतियां हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर

लेखन जारी है......